कार्यशील पूंजी मैनेजमेंट क्या है
कार्यशील पूंजी प्रबंधन कंपनी के प्रभावी ऑपरेशन के लिए बिज़नेस की वर्तमान एसेट और लायबिलिटी का सर्वश्रेष्ठ उपयोग सुनिश्चित करता है. कार्यशील पूंजी का प्रबंधन करने का मुख्य उद्देश्य किसी कंपनी की पर्याप्त नकद प्रवाह बनाए रखने और अल्पकालिक बिज़नेस लक्ष्यों को पूरा करने के लिए देयताओं की निगरानी करना है. यह योजनाबद्ध और अनियोजित खर्चों को संबोधित करने में मदद करता है और लिक्विडिटी बनाए रखकर बिज़नेस की क्षमता का निर्धारण करता है.
कार्यशील पूंजी मैनेजमेंट का महत्व
एक बिज़नेस को दैनिक ऑपरेशन के लिए पर्याप्त कैश फ्लो की आवश्यकता होती है जैसे कि भुगतान करना, कच्चे माल खरीदना या अप्रत्याशित खर्चों का प्रबंधन. कार्यशील पूंजी इन आवश्यकताओं को पूरा पूंजी प्रबंधन और नोट्स पूंजी प्रबंधन और नोट्स करने और कंपनी के फाइनेंशियल हेल्थ के रिपोर्ट कार्ड के रूप में कार्य करने में मदद करती है.
उचित कार्यशील पूंजी प्रबंधन बिज़नेस को आसानी से संचालित करने और अपनी आय में सुधार करने की अनुमति देता है. इसमें रुटीन ऑपरेशन के लिए पर्याप्त कैश उपलब्ध कराने के लिए इन्वेंटरी, अकाउंट रिसीवेबल्स और देय चीजों का उपयुक्त प्रबंधन शामिल है. यह न केवल बिज़नेस को अपने फाइनेंशियल दायित्वों को पूरा करने पूंजी प्रबंधन और नोट्स में मदद करता है बल्कि उनकी कमाई को भी बढ़ाता है. इसके अलावा, यह उन क्षेत्रों की पहचान करने में मदद करता है जिनमें लाभ और लिक्विडिटी बनाए रखने के लिए ध्यान देने की आवश्यकता होती है.
Capital Structure
एक व्यावसायिक उपक्रम द्वारा निर्गमित किए जाने वाले उन अंशों एवं ऋण पत्रों के मिश्रण को, तब अनुकूलतम पूंजी संरचना कहा जाता है जबकि उससे न्यूनतम पूंजी लागत आती हो और अंशों के मूल्य को अधिकतम बनाए रखा जा सकता हो।
ऐसी संरचना पूंजी प्रबंधन और नोट्स को निर्धारित करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
- अधिकतम आय की प्राप्ति
- लोच शीलता का होना
- न्यूनतम लागत आना
- न्यूनतम जोखिम का होना
- अधिकतम पूंजी प्रबंधन और नोट्स नियंत्रण
- शासकीय कानूनों के अनुरूप होना
- तरलता का होना
- विनियोजक या निवेशकों के लिए उपयोगी
- क्षमता का होना
- समता अंश धारियों का अधिकतम ध्यान
पूंजी संरचना को को प्रभावित करने वाले तत्व ( Elements influencing capital structure )
1. भावी योजनाएं ( Future plans ) – वित्त विश्लेषकों का यह मानना है कि यदि संस्था का भविष्य में और इकाईयां विभाग स्थापित करके विस्तार किया जाना या नवीनतम तकनीकी अपनाकर विकास का मार्ग प्रशस्त किया जाना हो तो प्रारंभ में समता पूंजी के निर्गमन द्वारा ही पूंजी एकत्रित की जानी चाहिए।
2. पुरानी संस्था बनाम नवीन संस्था ( Old institution v/s new organization ) – जो उपक्रम दीर्घ काल से स्थापित होते हैं उनमें पूंजी की जोखिम नए स्थापित उपक्रमों की अपेक्षा कम होती है। पुरानी संस्थाओं को ऋण आसानी से मिल जाता है किंतु नई संस्थाओं को ऋण पूंजी आसानी से नहीं मिल पाती है।
3. प्रबंधकों की क्षमताएं ( Capabilities of managers ) – एक कंपनी के प्रबंधक गण पूंजी प्रबंधन और नोट्स जितने अधिक योग्य एवं अनुभवी होंगे उतनी ही श्रेष्ठ पूंजी संरचना की जा सकेगी।
4. समता पर व्यापार की नीति ( Trade policy on equity ) – एक कंपनी के स्वामियों अर्थात समता अंश धारियों की नीति रहती है कि व्यवसाय में केवल अपनी ही समता पूंजी रखें और भावी अंशो के निर्गमन से बचते हुए ऋण की मात्रा बढ़ाकर अधिकाधिक लाभ कमाएं। ऐसी नीति से पुंजीगत ढांचा प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है।
5. व्यवसाय पर नियंत्रण की इच्छा ( Business willingness to control )- कई व्यवसाय ऐसी प्रकृति के होते हैं कि अंशधारी ही प्रबंधक का कार्य भी करने लगते हैं और उनकी केंद्रीय करण की प्रवृत्ति बनने लगती है तो वे संपूर्ण समता अंशों के स्वामी बने रहकर अल्पकालीन और मध्यकालीन पूंजी प्राप्त करने के लिए पूर्व अधिकार अंशों और ऋण पत्रों का सहयोग प्राप्त करने लगते हैं जो संस्था को बाजार की परिस्थितियों के अनुरूप अच्छी या बुरी स्थिति में भी ला सकते हैं।
6. परिचालन अनुपात की स्थिति ( Status of operating ratio ) –कंपनी के परिचालन खर्चों का विक्रय किए गये माल की शुद्ध विक्रय की राशि से अनुपात पूंजी संरचना को प्रभावित किए बिना नहीं रहता है।
7. पूंजी दन्ति अनुपात ( Capital gem ratios )- दंति अनुपात के तात्पर्य एक कंपनी की कुल पूंजी में से समता पूंजी तथा स्थिर लागत वाली पूंजी के मध्य पूंजी प्रबंधन और नोट्स के अनुपात को ज्ञात करने से हैं। स्थिर लागत वाली से अभिप्राय ऋण पूंजी एवं पूर्व अधिकार अशों से है जिन पर स्थिर ब्याज एवं लाभांश देय होता है।
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